छत्तीसगढ़ में राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र मानी जाने वाली पंडो जनजाति को बचाने में सरकारी तंत्र फेल
रायपुर। राज्य के सरगुजा संभाग में निवासरत विशेष संरक्षित पिछड़ी जनजाति पंडो के संरक्षण में सरकारी तंत्र पूरी तरह फेल नजर आ रहा है। पंडो जनजाति के लोग राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहलाते हैं। राष्ट्रपति के इन दत्तक पुत्रों की हालत में सुधार लाने के लिए 2014 में पंडो अभिकरण बनाने के बाद भी धरातल पर कुछ नहीं दिखा।
इस संरक्षित अति पिछड़ी जनजाति की अनदेखी शासन-प्रशासन कैसे कर रहा है, यह तब उजागर हुआ है, जब बलरामपुर जिले के रामचंद्रपुर व वाड्रफनगर विकासखंड में पिछले 20 दिनों में 10 पंडो की मौत के आंकड़े सामने आए। प्रशासन ने यहां स्वास्थ्य शिविर लगाना आरंभ किया, तो पंडो जनजातियों की बुरी स्थिति सामने आई।।
(टीबी) से पीड़ित मिले हैं। निश्चित रूप से यह शासन-प्रशासन और उस पंडो अभिकरण से जुड़े अधिकारियों की बड़ी लापरवाही है। अब तक हुई मौतों के पीछे कुपोषण की बातें सामने आई हैं। यही नहीं, बड़ी संख्या में क्षय रोग से पीड़ित होना ही इस बात का प्रमाण है कि किसी ने इन संरक्षित जनजाति के बारे में गंभीरता से विचार नहीं किया। बता दें कि छत्तीसगढ़ राज्य में वर्ष 2009-10 के सर्वे के अनुसार 31 हजार 814 की संख्या में पंडो जनजाति हैं।
शासन के पास मौत को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा भी नहीं है। कितनी संख्या घटी है, यह भी इनके पास नहीं है। सामाजिक सर्वे जरूर हुआ है, जिसे सही मानना उचित नहीं होगा। लगातार मौतों से इनकी संख्या काफी कम हुई है। विडंबना तो यह है कि कोरिया जिले में भी पंडो निवासरत हैं, पर अब तक न यहां सर्वे हुआ और न इस जिले को पंडो विकास अधिकरण में शामिल किया गया है।
राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहलाने के साथ अपने अनूठे रहन-सहन, वनवासी जीवनशैली और सामाजिक ताने-बाने में जीवनयापन करने वाले इस विशेष पिछड़ी जनजाति को मुख्यधारा में लाने के दावे सिर्फ कागजों तक सीमित हैं।
यदि इस संरक्षित जनजाति को वास्तव में संरक्षित करना है तो इसके लिए जो योजनाएं बनती हैं, वे कागजी न हों। इस समाज के कुछ युवा पढ़-लिखकर शासकीय सेवा में कार्यरत हैं। अगर इस जनजाति की नई पीढ़ी को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा जाएगा, एक-एक पंडो परिवार को शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी जरूरतें उपलब्ध कराई जाएंगी, तभी इन्हें संरक्षित किया जा सकता है।
दरअसल, इन्हें महाभारत के पांडवों का वंशज भी माना जाता है। साल 1952 में जब देश के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद का सरगुजा आगमन हुआ था, तो पंडो बहुल गांव पंडोपारा सरगुजा (अब सूरजपुर) में पंडो समाज ने राष्ट्रपति का वनवासी परंपरा के अनुरूप स्वागत सत्कार किया था। तब राजेंद्र प्रसाद ने इस जनजाति के बारे में जाना और और इन्हें अपना दत्तक पुत्र बनाया।