कुंवारी लड़की को जबरदस्ती रंग लगाने पर करनी पड़ती है शादी, जानें क्या हैं परम्परा

न्यूज़ डेस्क। होली की तैयारी जोर-शोर से चल रही है. लोग एक- दूसरे से पूछ रहे हैं कि होली कब है. कहीं 14 मार्च को होली खेलने की तैयारी है तो कहीं 15 मार्च को. कहीं बनारस पंचांग का हवाला दिया जा रहा है तो कहीं मिथिला पंचांग का. वैसे तैयारी जोर-शोर से चल रही है. बाजार में तरह-तरह की पिचकारी, हर्बल रंग-गुलाल, मुखैटों की भरमार है. बाजार में होली की रौनक दिख रही है. इससे इतर संथाली आदिवासी समाज में बाहा पर्व शुरू होने के साथ ही होली खेलने का दौर शुरू हो गया है. खास बात है कि यहां रंगों से नहीं, बल्कि सिर्फ पानी से होली खेली जाती है. लेकिन क्या मजाल की कोई युवक किसी कुंवारी युवती पर रंग डाल दे.
संथाली समाज क्यों नहीं खेलता रंगों की होली
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी यूनिवर्सिटी में संथाली भाषा की असिस्टेंट प्रोफेसर दुमनी मई मुर्मू का कहना है कि अगर ईंट का धूल भी कुंवारी लड़की के माथे पर लग जाता है तो उसको सिंदूर समान माना जाता है. इसी तरह लाल रंग लगने पर भी सिंदूर से जोड़कर देखा जाता है. इसलिए सिर्फ पानी से होली खेली जाती है. क्योंकि पानी में हर रंग का समावेश होता है. एक और खास बात है कि हास्यपद वाले संबंधों में ही पानी से होली खेली जाती है. मसलन, जीजा-साली, देवर-भाभी, पति-पत्नी के बीच होली होती है. संथाली समाज में भाई-बहन के बीच पानी की भी होली नहीं खेली जाती है.
हास्यपद रिश्ते में खेली जाती है पानी की होली
जिस रिश्ते में मजाक चलता है, पानी की होली उसी के साथ खेली जा सकती है. यदि किसी भी युवक ने किसी कुंवारी लड़की पर रंग डाला, तो ग्रामसभा उसी लड़की से शादी करवा देता है. अगर लड़की को शादी का प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ तो रंग डालने के जुर्म में युवक के घर से बैल, बकरी या खेत का इस्तेमाल तबतक लड़की वाले करते हैं, जबतक उसकी किसी दूसरे से शादी ना हो जाए. पूरे देश में जहां भी संथाली समाज के लोग हैं, वहां यह परंपरा चलती है. लेकिन समय के साथ शहरी क्षेत्रों में चलन में बदलाव आया है. क्योंकि शहर में सामाजिक ताना-बाना बदल जाता है.
बाहा पर्व के साथ शुरू होती है पानी की होली
असिस्टेंट प्रोफेसर दुमनी मई मुर्मू का कहना है कि फाल्गुन माह में चांद दिखने के पांचवे दिन से बाहा पर्व की शुरुआत होती है. पूरे फाल्गुन माह तक इस पर्व को मनाया जाता है. जाहेर (संथाली समाज का पूजा स्थल) में नया फूल, नया फल की पूजा होती है. क्योंकि ईष्ट देव को समर्पित किए बगैर नये फल और फूल का सेवन वर्जित होता है. इस पूजा के दौरान परिवार के सभी सदस्य एक जगह जुटते हैं. इसी वजह से हर गांव में अलग-अलग तारीख तय कर बाहा पर्व मनाते हैं.
प्रकृति से तालमेल और एकजुटता का प्रतीक है बाहा पर्व
बाहा पर्व के पहले दिन जाहेर (पूजा स्थल) को साफ सुथरा किया जाता है. खुद को पवित्र किया जाता है. दूसरे दिन जाहेर में पूजा होती है. तीसरे दिन देवी-देवता से संबंधित अस्त्र-शस्त्र से ‘अतु सेंदरा’ पर गांव के लोग निकलते हैं. खास बात है कि इस दिन गांव की चौहद्दी में ही शिकार करना होता है. शिकार का मतलब यह नहीं कि किसी जानवर को मारना जरूरी है. कद्दू, कोहड़ा भी मिल जाए तो सामूहिक भोज हो जाता है. असिस्टेंट प्रोफेसर दुमनी मई मुर्मू का कहना है कि एक गलत नैरेटिव तैयार किया गया है कि आदिवासी समाज के लोग शिकार करते हैं. लेकिन सच यह है कि अतु सेंदरा के दौरान अगर कोई जानवर घेराबंदी में आ जाता है और प्रथम वार से बच जाता है तो फिर उसको दोबारा टारगेट नहीं किया जाता है. कुल मिलाकर देखें तो पानी वाली होली के जरिए आपसी संबंधों को और प्रगाढ़ किया जाता है. रिश्तों का मतलब समझाया जाता है. इंसान और प्रकृति के बीच तालमेल बिठाया जाता है. अतु सेंदरा के जरिए गांव में एकजुटता कायम होती है. इसलिए संथाली समाज की पानी वाली होली सबसे अनूठी है. इसमें पवित्रता है